I heard this poem a while back in Amitabh Bachchan's voice in an album called Bachchan Recites Bachchan. There are several great poems in that collection but this one somehow stuck in my mind.
The second and third stanza from the bottom are my most favourite.
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
कभी नहीं जो तज सकते हैं अपना न्यायोचित अधिकार,
कभी नहीं जो सह सकते हैं शीश नवा कर अत्याचार,
एक अकेले हों या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़.
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
निर्भय होकर घोषित करते जो अपने उद्गार विचार
जिनके जिव्हा पर होता है उनके अंतर का अंगार
नही जिन्हें चुप कर सकती है आतताइयों की शमशीर
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
नही झुका करते जो दुनिया से करने को समझौता
ऊँचे से ऊँचे सपनो को देते रहते जो न्योता
दूर देखती जिनकी पैनी आँख भविष्यत का तम चीर
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
जो अपने कंधो से पर्वत से बढ़ टक्कर लेते हैं
पथ की बाधाओं को जिनके पाँव चुनौती देते हैं
जिनको बाँध नही सकती है लोहे की बेड़ी ज़ंजीर
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
जो चलते है अपने छप्पर के ऊपर लूका धर कर
हार जीत का सौदा करते जो प्राणो की बाज़ी पर
कूद उदधि में नहीं पलट कर जो फिर ताका करते तीर
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
जिनको यह अवकाश नहीं है देखें कब तारे अनुकूल,
जिनको यह परवाह नहीं है कब तक भद्रा, कब दिक्शूल,
जिनके हाथों की चाबुक से चलती है उनकी तक़दीर,
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
तुम हो कौन कहो जो मुझसे सही ग़लत पथ लो तो जान
सोच सोच कर पूछ पूछ कर बोलो कब चलता तूफान
सत्पथ वो है जिसपर अपनी छाती ताने जाते वीर
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़.
3 comments:
Very nice. Thanks for sharing.
his poems always reflects on the practical aspects of human life.... thanks for sharing.
@AH, you are welcome.
@Irfan ji, most of his poems that I have heard or read are quite inspiring. I like his work. And of course, you are welcome. :)
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